Class 10th Social Science VVI Subjective 2025: कक्षा दसवीं सामाजिक विज्ञान महत्वपूर्ण लघु उत्तरीय प्रश्न

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Class 10th Social Science VVI Subjective 2025: कक्षा दसवीं सामाजिक विज्ञान महत्वपूर्ण लघु उत्तरीय प्रश्न

Class 10th Social Science VVI Subjective 2025

1. हर सामाजिक विभिन्नता सामाजिक विभाजन का रूहीं होती। कैसे?

उत्तर-लोकतंत्र में सामाजिक विभाजन की राजनीतिक अभिव्यक्ति होती है। इससे सामाजिक विभाजनों के बीच एक संतुलन पैदा होता है। इसी से हर सामाजिक विभिन्नता सामाजिक विभाजन में परिणत नहीं होती।

2. सामाजिक अंतर कब और कैसे सामाजिक विभाजनों का रूप ले लेते हैं?

उत्तर-जब कोई एक सामाजिक अंतर दूसरी विभिन्नताओं से ऊपर और बड़ा हो जाता है, तब सामाजिक विभाजन होता है। भारत में सवर्णों और दलितों का अंतर एक सामाजिक विभाजन है। दलित पूरे देश में आम तौर पर गरीब, वंचित और बेघर हैं। इस तरह गरीबी सामाजिक अंतर में अन्य अंतरों से अधिक महत्वपूर्ण बन जाती है तो सामाजिक विभाजन का एक रूप ले लेती है।

3. किन्हीं दो ऐसे प्रावधानों का उल्लेख करें जो भारत को ध र्मनिरपेक्ष देश बनाते हैं?

उत्तर- भारत में धर्मनिरपेक्ष शासन की स्थापना के दो प्रावधान निम्नहैं-

(i) श्रीलंका में बौद्धधर्म, पाकिस्तान में इस्लाम तथा इग्लैंड में ईसाई धर्म की तरह भारत का संविधान किसी धर्म को विशेष दर्जा नहीं देता।

(ii) संविधान में हर नागरिक को यह स्वतंत्रता है कि वह अपने विश्वास से किसी धर्म को स्वीकार कर सकता है। इस आधार पर कोई नागरिक किसी अवसर से वंचित नहीं रहता। इस तरह हम देखते हैं कि ध र्मनिरपेक्षता हमारे देश में केवल विचारधारा ही नहीं है, संविधान की बुनियाद भी है।

4. भारत की विधायिकाओं में महिलाओं के प्रतिनिधित्व की स्थिति क्या है? [2013A]

उत्तर-भारत की विधायिकाओं में महिलाओं की हिस्सेदारी बढ़ रही है, फिर भी इसका प्रतिशत 11 प्रतिशत से भी नीचे है। भारत की लोकसभा ने महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण देने का मामला अभी भी लटका हुआ है। कुछ राज्यों में पंचायत, जिलास्तर के स्थानीय स्वशासन में महिलाओं

तिशत तय कर दिया गया है। इसमें बिहार अभी तक सबसे आगे है। यहा स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिए 50 प्रतिशत आरक्षण दृढ़ निर्धारित कर दिया गया है।

5. भारत में किस तरह जातिगत असमानताएँ जारी हैं-स्पष्ट करें।

उत्तर-हमारे संविधान में जातिगत भेदभाव या असमानता का निषेध किया गया है, पर अभी भी जातिगत असमानताएँ अपने मौलिक और विकराल रूपों में निम्न रूप से जारी हैं-

शादी-ब्याह के मामले में अभी भी जाति की प्रधानता है। समाज में खासकर गांवों में अभी भी छुआछूत का पालन किया जाता है। उच्च जातीय समूह आज भी लाभकर स्थिति में हैं। अभी भी शिक्षा के क्षेत्र में सशक्त जातियाँ आगे हैं और दलित जातियों में अधिकांश शिक्षा से वंचित हैं। इस तरह सदियों से जिस तरह कुछ जातीय समुदाओं को लाभ और कुछ को घाटा मिलता रहा है, उसका असर आज भी मौजूद है।

6. ‘सामाजिक विभाजनों की राजनीति के परिणामस्वरूप ही लोकतंत्र के व्यवहार में परिवर्तन होता है, भारतीय लोकतंत्र के संदर्भ में इसे स्पष्ट करें।

उत्तर- भारत सदियों से अपनी वैज्ञानिक शिक्षा के अभाव में जड़तामूलक सामाजिक विभाजन की लक्ष्मण रेखा के भीतर फँसा रहा है। यही कारण है कि भारत में सामाजिक विभाजनों की राजनीति के परिणामस्वरूप लोकतंत्र के व्यवहार में परिवर्तन होता रहा है। स्वतंत्रता के बाद 1967 ई० तक देश की राजनीतिक सत्ता सवर्णों के हाथों में रही। शिक्षा के प्रचार-प्रसार के फलस्वरूप समाज के निम्न मध्यवर्गीय लोगों के बीच जागृति का भाव पैदा हुआ जिसके फलस्वरूप समाज के निचले स्तर से विभिन्न स्तरों पर सुविधाकारी व्यवस्था की माँग की गई। काका कलेलकर तथा मंडल आयोग का गठन इन्हीं ज्वलंत माँगों को एक नई सार्थक दिशा देने हेतु किया गया। फलतः समाज की अधिकांश पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण के प्रावधान किये गये जिसके फलस्वरूप राजनीति में पिछड़ी जातियों की सत्ता पर मजबूत पकड़ बनने लगी। और इससे लोकतंत्र की नीतियों की दिशा ‘सर्वे भवंतु सुखिनः’ की भावना से प्रभावित होने लगी। दलित एवं महादलितों के बीच की संघर्षीय सुगबुगाहट विभिन्न सुविधाओं को प्राप्त करने की महत्वपूर्ण राजनीतिक विद्वेष का विषय आज बनी हुई है।

7. सत्तर के दशक से आधुनिक दशक के बीच भारतीय लोकतंत्र के सफर का संक्षिप्त वर्णन करें।

उत्तर- भारतीय लोकतंत्र का सफर 70 के दशक से आज के दिनों तक विभिन्न रास्तों से गुजर कर शुद्ध लोकतांत्रिक स्वरूप में आ पहुँचा है। जिसमें समाज के बहुसंख्यक लोगों की राजनीति में अप्रत्यक्ष भागीदारी हो पाई है। स्वतंत्रता के बाद से 70 के दशक तक भारतीय लोकतंत्र कुछ विशिष्ट सुविधाभोगी, आभिजात्य वर्गों के हाथ तक सीमित थी। 70 के दशक से लगातार शिक्षा के प्रसार एवं राजनीतिक चेतना के जागृत होने के कारण समाज के दबे कुचले लोगों ने भी सत्ता में हिस्सेदारी की माँग दुहराई। फलतः भारतीय राजनीति में सवर्णों की जगह मध्यम पिछड़े वर्गों का वर्चस्व बढ़ने लगा। मण्डल आयोग की आरक्षण संबंधी अनुशंसा ने इन पिछड़े एवं दलित वर्गों में नई चेतना और ऊँची महत्वाकांक्षाओं को जन्म दिया। फलतः देखते ही देखते भारतीय राजनीति इन्हीं वर्गों के नेतृत्व में समाज की विभिन्न माँगों को पूरा करने में लग गई है।

8. भावी समाज में लोकतंत्र की जिम्मेवारी और उद्देश्य पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखें।

उत्तर- भावी समाज में लोकतंत्र की जिम्मेवारी काफी महत्वपूर्ण एवं चुनौतीपूर्ण है। भारतीय लोकतंत्र को आनेवाले समय में सामाजिक असमानताओं को मिटाने, जाति, धर्म, लिंग एवं आर्थिक विभेद को पाटना है। इसके अलावे आधुनिक शिक्षा को समाज के प्रत्येक व्यक्ति तक पहुँचाकर उनमें वैज्ञानिक सोच, लोकतंत्र के प्रति आस्था एवं जड़तामूलक पूर्वाग्रहों से उन्हें मुक्त कर श्रम के प्रति लोगों में आत्मिक भाव पैदा करना होगा।

9. क्यों सिर्फ जाति के आधार पर भारत में चुनावी नतीजे तय नहीं हो सकते? इसके दो कारण बतावें।

उत्तर- स्वतंत्रता प्राप्ति के 60 वर्षों से अधिक समय बीतने के फलस्वरूप समाज में शिक्षा के क्षेत्र में काफी प्रगति हुई है। लोग अब अच्छे और बुरे उम्मीदवारों की पहचान करने लगे हैं। फलतः आज के लोकतंत्र में केवल जाति के आधार पर उम्मीदवारों का चुनाव नहीं करते हैं।

इसके अलावे दबंगों के द्वारा बूथ लुट, फर्जी मतदान, धमकी, रुपयों का वितरण जैसे भ्रष्ट कार्यों के द्वारा भी जातीय समीकरण की राजनीति को चुनावी नतीजे से दरकिनार कर दिया है।

10. भारत में किस तरह जातिगत असमानताएँ जारी हैं? स्पष्ट करें।

उत्तर- अतिप्राचीन काल से ही कर्म के आधार पर समाज को जातियों में बाँटा गया था। बाद में जातिवाद ने समाज में जड़वत रूप धारण कर लिया। शिक्षा एवं विवेक के अभाव के कारण जाति गौरव गान प्रत्येक समाज में एक अहम तत्व बनकर रह गया। फलतः समाज की विभिन्न जातियों ने अपनी श्रेष्ठता अन्य जातियों पर स्थापित करने के लिए संघर्ष एवं विद्वेष की नीति को स्वीकार किया। इसके फलस्वरूप भारतीय समाज जातीय तनाव, हिंसा एवं द्वेष का मुख्य केंद्र बन गया। इतना ही नहीं, देश की राजनीति खासकर बिहार में जातीय गणित के आधार पर राजनीतिक प्रतिनिधियों का चुनाव एवं सरकार बनाने में सहयोग के महत्वपूर्ण कारक बन गई। यहाँ तक विभिन्न राजनैतिक दलों के द्वारा चुनाव में जाति के आधार पर प्रत्याशियों का चयन किया जाने लगा।

बिहार जातिवाद का सत्र ही नहीं बल्कि दलितों ए संघर्षकारी विभेद आ खड़ा हुआ हा बाड़ा है। यहाँ सवर्णों और पिछड़ों के बीच जाति के आधार पर

 

 

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