Class 12th Hindi 100 Marks VVI Subjective 2025: हिंदी 100 मार्क्स लघु उत्तरीय प्रश्न

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Class 12th Hindi 100 Marks VVI Subjective 2025: हिंदी 100 मार्क्स लघु उत्तरीय प्रश्न

Class 12th Hindi 100 Marks VVI Subjective 2025:

1. व्यक्ति से नहीं, हमें तो नीतियों से झगड़ा है, सिद्धान्तों से झगड़ा है, कार्यों से

प्रस्तुत पक्ति हमारे पाठ्य पुस्तक दिगंत भाग- 2 के पाठ ‘संपूर्ण क्रांति से उद्धत है। सम्पूर्ण क्रान्ति आन्दोलन के समय कांग्रेसियों द्वारा यह प्रचारित किया गया कि जय प्रकाश का नेहरू जी से विवाद था और अब उनकी पुत्री से विवाद है। उनसे पटती नहीं है। यह व्यक्तिगत मामला है। इसी का उत्तर इसमें जय प्रकाश जी ने दिया है। वस्तुतः जय प्रकाश कांग्रेस की विदेश नीति को गलत मानते थे। इसलिए नेहरू से मतान्तर था, परिणाम भी वही हुआ। चीन द्वारा भारत पर हमला मैत्री की ओट में विश्वासघात था जो नेहरू की विदेश नीति की विफलता का प्रमाण था। इसी तरह कांग्रेस के शासन करने के ढंग से उनका विरोध था। क्योंकि इसके कारण महंगाई और भ्रष्टाचार निरन्तर बढ़ रहे थे, राजनीति स्वार्थ परक हो रही थी और नीतियाँ विकृत की जा रही थीं।

2. और अब घर जाओ तो कह देना कि मुझे जो उसने कहा था वह मैंने कर दिया।

प्रस्तुत पंक्तियाँ चन्द्रधरशर्मा गुलेरी की कहानी ‘उसने कहा था’ की हैं। यह कथन लहना सिंह का है तथा सूबेदार हजारा सिंह को कह रहा है। इसमें उसके पति के माध्यम से पत्नी को संदेश भेज रहा है। सूबेदारनी ने पति हजारा सिंह और पुत्र बोधा सिंह की रक्षा करने हेतु प्रार्थना की थी, भीख मांगी थी। लहना ने अपने जान की बाजी लगाकर दोनों की रक्षा की। उसने अपने वचन का पालन कर सच्चे प्रेमी होने का प्रमाण दिया। इसमें प्रतिदान रहित दान की कोमलता की मर्मस्पर्शी व्यंजना है।

3. जिस पुरुष में नारीत्व नहीं, अपूर्ण है।

प्रस्तुत पंक्तियाँ रामधारी सिंह दिनकर की अर्द्धनारीश्वर निबन्ध की हैं। चंदा दिनकर का कहना है कि जीवन की पूर्णता कठोरता, कोमलता, ताप-शीतलता आदि के समन्वय में है। यदि पुरुष में नारी भाव न हो तो वह केवल कठोर और अशांति मचानेवाला होता है। अतः अधूरा होता है। स्त्री का थोड़ा गुण आने पर उसमें प्रेम, दया, कोमलता, शीतलता आती है। इसलिए नारीत्व विहीन पुरुष अधूरा माना जाता है।

4. सच है, जब तक मनुष्य बोलता नहीं तब तक उसका गुण-दोष प्रकट नहीं होता।

यह उक्ति बालकृष्ण भट्ट के निबन्ध बात-चीत से गृहीत है। इसमें एक सर्वस्वीकृत और अनुभव सिद्ध तथ्य का कथन किया गया है। जबतक आदमी चुप रहता है तबतक पता नहीं लगता कि उसका स्वभाव कैसा है, उसकी रुचि क्या है और उसका दूसरों के साथ व्यवहार कैसा है। लेकिन जब वह बोलने लगता है तो जाने अनजाने उसका भीतरी और असली रूप व्यक्त हो जाता है। इससे लोगों को पता लग जाता है कि व्यक्ति का स्वभाव कैसा है। स्पष्टतः यह उक्ति बतलात्ती है कि भाषा व्यक्ति के समग्र व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति है।

5. चार दिन तक पलक…. टेकना नसीब न हो।

प्रस्तुत पक्तियाँ “उसने कहा था” शीर्षक कहानी से ली गई हैं। इस कहानी के लेखक चन्द्रधर शर्मा गुलेरी हैं। लहना सिंह सिक्ख राइफल्स में जमादार है। वह इंग्लैंड की ओर से जर्मनी के विरूद्ध युद्ध लड़ने गया है। लहना सिंह मोर्चे पर लड़ाई का इंतजार करते-करते उकता गया ‘है। वह चाहता है कि युद्ध शीघ्र प्रारम्भ हो। इंतजार से वह उकता गया है और इसी उकताहट में वह ये पंक्तियाँ कहता है।

लहना सिंह चार दिनों से नहीं सोया है। वह, लगातार युद्ध शुरू होने का इंतजार कर रहा है। उसका कहना है कि जिस तरह बिना दौड़े घोड़ा बिगड़ जाता है, उसी तरह लड़ाई के बिना  सैनिक भी बिखर जाता है। इसलिए वह चाहता है कि उसे आगे बढ़ाने और जर्मन पर हमला करने का आदेश दिया जाए। लाना सिंह इतना आत्मविश्वास से भरा है कि वह कहता है वह अकेले साथ-साथ जर्मन को साथ मार डालेगा।

6. हमारी भीतरी मनोवृत्ति प्रतिक्षण नए-नए रंग दिखाया करती है, वह प्रपंचात्मक संसार का एक बड़ा भारी आईना है, जिसमें जैसी चाहो वैसी सूरत देख लेना कोई दुर्घट बात नहीं है।

बात-चीत शीर्षक निबन्ध से गृहीत इन पंक्तियों में मन की भीतरी वृत्तियों की विशेषता का उल्लेख बालकृष्ण भट्ट जी ने किया है। मन को लेखक ने दर्पण माना है। यह दर्पण की तरह ही ग्रहणशील होता है। दर्पण के सामने जो भी रख दो उसका बिम्ब बन जायेगा। वह अच्छे-बुरे, अनुकूल प्रतिकूल का भेद नहीं करता। वैसे ही मन उस प्रपंच पूर्ण संसार के लोगों का जैसा-जैसा व्यवहार देखता है वैसा-वैसा ही ग्रहण करता चलता है। इससे व्यक्ति को संसार के वास्तविक रूप का ज्ञान हो जाता है, लोगों के असली-नकली व्यवहारों का पता चलता रहता है। व्यक्ति प्रपंच का शिकार होने से बच जाता है। मन की वृत्तियों के बदलते रंगों के साथ संसार में घटित सारे व्यापारों का सही अनुभव कर पाना कठिन नहीं है।

7. मैंने देखा, पवन में चीड़ के वृक्ष…… किन्तु उद्वेगमय नहीं…..

इन पक्तियों में वाह्य प्रकृति के साथ मालती की आंतरिक मनोदशा का साम्य प्रतीक रूप में दिखाया गया है। गर्मी से सूखकर मटमैले हुए चीड़ के वृक्ष मालती के सूखे जीवन को प्रतीकित करते हैं। लेखक ने मालती के जीवन को अशांत अनुभव किया है लेकिन उसमें न तो करूणा है और न उद्वेग। इसलिए उसमें एक दुखपूर्ण कोमलता का रूप अनुभव होता है। यहाँ मालती के जीवन और

चीड़ के वृक्ष की समानता द्वारा मालती के अशांत जीवन को सूचित करना लेखक का लक्ष्य है। 10. प्रत्येक पत्नी अपने पति को बहुत कुछ उसी दृष्टि से देखती है जिस दृष्टि से लता वृक्ष को देखती है।

प्रस्तुत पंक्तियाँ, ‘अर्द्धनारीश्वर’ शीर्षक निबंध से ली गई हैं। इसके लेखक रामधारी सिंह दिनकर हैं। प्रस्तुत पंक्तियों में निबन्धकार यह कहना चाहता है कि जिस तरह वृक्ष के अधीन उसकी लताएँ फलती-फूलती हैं, उसी तरह पत्नी भी पुरुषों के अधीन है। वह पुरूष के पराधीन है। इसी कारण नारी का अस्तित्व संकट में पड़ गया है।

लता का स्वभाव है कि वह किसी पेड़ के बिना विकसित नहीं हो पाती। पेड़ पर चढ़कर वह मनमाने ढंग से फैलने लगती है। यही स्थिति पत्नी की है। अपने विकास करने के लिए वह पति का सहारा चाहती है। उसके बिना अपने को असहाय समझती है। यहाँ लेखक ने पत्नियों के पति-आश्रित स्वभाव की ओर संकेत किया है।

8. ‘बहुत काली सिल जरा से लाल केसर से कि जैसे घुल गई हो’

यहाँ दो तरह का विम्ब दिखाई पड़ता है। पहला जीवन का विम्ब है जिसमें सुबह चौका लीपने के बाद गृहिणी सिलवट पर मशाला पीसती है और केसर पीसने के बाद सिलवट धुल जाने के बाद भी उसमें थोड़ी देर तक लाली बनी रहती है। दूसरा यह कि समस्त दिगन्त सूर्य की लाली से भर गया है जो लगता है कि बहुत काली सिल जरा से लाल केसर से धुल गई हो। आकाश की थोड़ी लालिमा ऐसी लगती है जैसे जिस समय सूर्योदय की शुरुआत हुई हो।

9. नर नारी पूर्ण रूप से समान हैं एवं उसमें एक के गुण दूसरे के दोष नहीं हो सकते।

प्रस्तुत पंक्ति अर्धनारीश्वर शीर्षक निबंध से ली गई है। इसके रचयिता रामधारी सिंह ‘दिनकर’ हैं। दिनकर जी का कहना है कि नर-नारी दोनों पूर्ण रूप से समान हैं। समाज के संतुलन के लिए स्त्री-पुरूष का समान सबल होना आवश्यक है। दिनकर जी के अनुसार नर और नारी एक ही द्रव्य से निर्मित दो मूर्तियाँ हैं। प्रत्येक नर के भीतर एक नारी और प्रत्येक नारी के भीतर एक नर छिपा है।

10. आश्चर्य था कि इतने लंबे अर्से से उसके अड्‌डे को इतनी अच्छी तरह से जानने के बवजूद कभी दिन में आकर मैंने उसे मारने की कोई कोशिश नहीं की थी।

प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक दिगंत भाग-2 के तिरिछ शीर्षक कहानी का एक अंश है। इस सारगर्भित कहानी के लेखक उदय प्रकाश हैं।

लेखक को सपने में तिरिछ आते रहने के कारण कहीं न कहीं उनमें भय घर कर गया था। इसी करण इतने लंबे अर्से से उसके अड्‌डे को इतनी अच्छी तरह जानने के बावजूद कभी दिन में आकर मारने की कोई कोशिश नहीं की। यह ‘आश्चर्य’ डर का ही प्रतिरूप था। हमारे जीवन में कुछ ऐसी घटनाएँ हो जाती हैं जो हमारे मन में घर कर जाती हैं जिसके कारण हम हमेशा डरे से रहते हैं। यही डर हमें उससे अलगाती है। यही वजह थी कि सबकुछ जानने के बाद भी उसने मारने की कोशिश नहीं की। जब वही सपने उसे आने बंद हो गये तो उसने जाकर ‘तिरिछ’ को जलाया और अपने को जिवित महसूस करने लगा।

 

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